हरिशंकर व्यास
उत्तर भारत में बुरी हार के बावजूद राहुल गांधी से लेकर कमलनाथ, भूपेश बघेल, अशोक गहलोत आदि सभी अभी भी नादानी में हैं। जैसे राजस्थान को लेकर यह सोचना कि भाजपा ने सांप्रदायिक राजनीति की, राहुल गांधी-प्रियंका ने मेहनत कम की तो हार गए। कांग्रेस को ध्यान ही नहीं कि भाजपा गलत उम्मीदवारों, ज्यादा कलह, अपने बागियों की अधिकता के बावजूद बहुमत से जीती है। कांग्रेस न चुनाव लड़ते वक्त सही थी और न हारने के बाद ईमानदारी से विश्लेषण करते हुए है। तीनों राज्यों में कांग्रेस ने रेवडिय़ों का खोमचा लगा कर चुनाव लड़ा। राहुल गांधी का अखिल भारतीय स्तर पर ओबीसी वोटों को रिझाने का खोमचा था। मतलब कांग्रेस है ओबीसी हितरक्षक! हम जात जनगणना कराएंगे। और राहुल गांधी का ऐसा हल्ला किसके आगे था? जन्मजात ओबीसी और बतौर पिछड़े प्रधानमंत्री के चेहरा बनाए ओबीसी के घर-घर पहुंचे हुए नरेंद्र मोदी के आगे!
तभी सोचें, राहुल गांधी और उनके सलाहकारों की मूर्खता पर! कश्मीरी पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी की विरासत संभाले ब्राह्मण राहुल गांधी के ओबीसी खोमचे पर। जिस नेहरू-गांधी परिवार ने दशकों राज किया। ब्राह्मण-फॉरवर्ड, दलित, आदिवासी और मुसलमान के कोई 60-65 प्रतिशत वोट बैंक से जिसने उत्तर भारत में लगातार विजय पाई उन इंदिरा गांधी का पोता यदि पिछड़ों को रिझाने के खोमचे से राजनीति करेगा तो क्या होगा? चुनाव में सूपड़ा साफ! इसलिए इन बातों का कोई अर्थ नहीं है कि हार के बावजूद तीनों प्रदेशों में कांग्रेस का वोट तो है। भूपेश बघेल ने छतीसगढ़ में हर संभव ओबीसी राजनीति की। ओबीसी और किसान के समीकरण में चुनाव जीतने की मास्टर रणनीति बनाई। ब्राह्मण-बनियों को गैर-छतीसगढ़ी करार दे कर आदिवासियों को भी छतीसगढिय़ा ओबीसी समीकरण में समेटा। इनके अलावा मुस्लिम वोटों को भी पटाए रखा! मतलब राहुल गांधी का ओबीसी खोमचा आदर्श रूप में छतीसगढ़ का सुपर शॉपिंग मॉल बना हुआ था। यह भी जानना चाहिए कि आधुनिक तौर-तरीकों से चुनाव प्रबंधन, सर्वे, सोशल मीडिया, प्रचार और संसाधन सभी में भूपेश बघेल और उनकी टीम भाजपा से बीस थी न कि उन्नीस!
लेकिन चुनाव नतीजा क्या? वही जो रायपुर एयरपोर्ट से उतरते ही झलकता हुआ था। मैं बार-बार लिखता हूं कि उत्तर भारत में लोगों की धडक़न बामन-बनियों की चर्चाओं से बनती है। यह सत्य नेहरू-इंदिरा गांधी के वक्त था तो नरसिंह राव, वाजपेयी, मनमोहन सिंह के समय में भी रहा। और मोदी राज में भी है। गांव चौपाल हो या बिलासपुर, रायपुर में जन मानस क्या सोचता हुआ होता है? आजादी से पहले के स्वतंत्रता आंदोलन पर विचार करें। किसने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की गूंज बनाई? ब्राह्मण-बनियों ने! किसने गांधी-नेहरू की हवा बनाई? रामजी और भागवत की कथा को बांचने वाले ब्राह्मणों ने! किसकी धुरी पर यूपी में ब्राह्मण-दलित-मुसलमान का समीकरण रहा? गोविंद वल्लभ पंत, त्रिपाठी, मिश्र, तिवारी जैसों के नेतृत्व से। याद रखें कांशीराम-मायावती ने अकेले ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ या मुलायम के संग राजनीति की तो उससे कुछ नहीं बना लेकिन शंख बजवा ‘हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ से ब्राह्मणों को पटाया तो उत्तर प्रदेश में दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम वोट बैंक बना और मायावती ने पूरे बहुमत से राज किया। मगर फिर ज्योंहि हिंदू राजनीति के आईकॉन के तौर पर नरेंद्र मोदी वाराणसी में पंडित मदनमोहन मालवीय का नाम ले कर चुनाव लडऩे उतरे तो घर-घर मोदी हो गया। ओबीसी भी ब्राह्मण-बनियों को साथ हर-हर करते हुए।
क्या मैं गलत हूं? सचमुच उत्तर भारत की यह अमिट हकीकत है कि ब्राह्मण मंदिर-पूजा-पाठ आदि की धर्म पताका से सभी जातियों में रमा रहता है। अपनी सोच और चर्चा की चखचख (यह बात राष्ट्रीय नैरेटिव में भी लागू है) को सभी जातियों में पसारते हुए होता है। जबकि जाट, यादव, गुर्जर आदि जातियां अपनी बिरादरी, खाप, चौपाल विशेष में खुद के सरोकारों, आपसी चर्चाओं से बाहर प्रभाव फैलाए हुए नहीं होती हैं। ओबीसी जातियों में परस्पर ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और खुन्नस का व्यवहार होता है तो दलित व मुसलमानों से टकराव भी बना हुआ होता है। नतीजतन अपने इलाके के दायरे के ही पंच, सरपंच, विधायक को ले कर जात अनुसार भले फैसले करें लेकिन प्रदेश और देश की राजनीति में वे उसी रौ में बहते हुए होंगे, जिसका नैरेटिव ब्राह्मण-भूमिहार-बनियों की फॉरवर्ड जमात से पैदा हुआ होता है।
इस रियलिटी को कांग्रेस भूला बैठी है। सोचें, मोदी-शाह कैबिनेट में, प्रदेशों के राजनीतिक नेतृत्व में ओबीसी चेहरों, जातियों की प्रदर्शनी लगाए बैठे हैं वहीं राहुल गांधी का प्रलाप है कि भारत सरकार के सचिवों में तीन ही ओबीसी सचिव हैं। भला भाजपा जब प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री आदि के चेहरो में ओबीसी बैठाए हुए है, ब्राह्मण-बनिए उनकी वाह करते हुए हैं तो राहुल गांधी का ओबीसी खोमचा कैसे हिट हो सकता है। लोगों के गले उतर सकता है? राहुल गांधी व सभी मोदी विरोधियों का नंबर एक संकट है जो उनकी बात पर गांव-चौपाल, शहर में चर्चा कराने वाला, नैरेटिव बनवाने वाला ब्राह्मण-बनिया है ही नहीं। ध्यान रहे अब शहरों-महानगरों और राजधानियों में ही सियासी चक्रवात बनते हैं और गांव-कस्बों को चपेटे में लिए हुए होते है। फिर वह हिंदू-मुस्लिम का बवंडर हो या भ्रष्टाचार व महंगाई या विश्व गुरू होने का। तभी जयपुर, भोपाल, रायपुर से लेकर बिलासपुर, उदयपुर, लखनऊ, पटना आदि तमाम शहरों-महानगरों में मोदी का जादू है तो वहां से वह बस्तर, सरगुजा, मेवाड़, महाकौशल के इंटीरियर तक पहुंचा हुआ होता है। जाहिर है कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, जदयू या राजद की नियति अब हारते रहने की है। चार महीने बाद भी लोकसभा चुनावों में 2019 व 2014 वापिस रिपीट होगा। एक तरह से विपक्ष, राहुल, अखिलेश, केजरीवाल, तेजस्वी आदि सबकी नियति गलतफहमियों और अहंकार में जीने से लगातार हारने की हो गई है।