पंकज शर्मा
संसद की सीढिय़ों पर जगदीप धनखड़ की देहभाषा, सदन में कार्यवाही को संचालित करने की शैली और सोच-प्रक्रिया का स्वांग-मंचन देखने के बाद से मेरा दिमाग़ चकरघिन्नी बन गया है। इसलिए नहीं कि तृण-तृण के मूल-मूल में रमे राजनीतिक दल के एक सांसद कल्याण बनर्जी अपनी अभिनय कला का प्रदर्शन करने को ऐसे उतावले हो गए कि उन से रहा नहीं गया या ऐतिहासिक तादाद में विपक्षी सांसदों को निलंबित कर देने की सत्तासीन हंटरबाज़ी ने हम सभी की तरह उन्हें भी इतना उद्वेलित कर दिया कि वे आपा खो कर यह सब कर बैठे। इसलिए भी नहीं कि 2024 की गर्मियों में नरेंद्र भाई मोदी को रायसीना पहाड़ी से नीचे लुढक़ाने के लिए हो रहे हवन की तैयारियों के गंभीर प्रबंधन में लगे राहुल गांधी किशोर-उछाह के साथ इस दृश्य का अपने फ़ोन-कैमरे में चलचित्रीकरण करने में बेबात ही मशगूल हो गए। मेरा माथा तो इसलिए सन्ना रहा है कि धनखड़ जी और मैं दशकों से एक-दूसरे के प्रीतिपात्र रहे हैं और अब उन्हें इस हाल में देख कर मेरा मन रोने-रोने को कर रहा है।
मेरा स्पष्ट मानना है कि महामहिमों का मखौल नहीं बनाया जाना चाहिए। किसी भी हालत में नहीं बनाया जाना चाहिए। वे अधम से अधम गति को प्राप्त हो जाएं, तब भी उन का मज़ाक बनाना नीतिविरुद्ध है। ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी पिछले दस बरस से संसद के भीतर और बाहर कई मान्यवरों को अपनी उपहास-कला का उछल-उछल कर निशाना बना चुके हैं। प्रधानमंत्री जी ने ऐसा न किया होता तो भी मैं यही कहता कि कल्याण बनर्जी संसद की सीढिय़ों पर न कुदकते तो बेहतर होता और राहुल गांधी इस नज़ारे का छायांकन करने के बजाय कल्याण को समझाइश देते नजऱ आते तो देश इस में उन का बड़प्पन देखता।
लेकिन इस बुनियादी तत्व-चिंतन से मेरे भीतर के सांसारिक सवाल शांत नहीं हो पा रहे हैं। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि ‘महामहिम’ कौन होता है? उपराष्ट्रपति या राज्यसभा के सभापति? अगर धनखड़ जी इसलिए महामहिम हैं कि वे राज्यसभा के सभापति हैं तो क्या फिर लोकसभा के अध्यक्ष भी महामहिम हैं? क्या संविधान के तहत गठित हर सदन के सभापति और अध्यक्ष ‘महामहिम’ दजऱ्ा-प्रदत्त हैं? विधानसभाओं, विधान परिषदों, जि़ला पंचायतों, नगर परिषदों और ग्राम सभाओं के अध्यक्षों को भी महामहिम क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
मेरी मोटी बुद्धि के हिसाब से मैं तो अभी तक यही समझता था कि सिफऱ् राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपाल को ही ‘महामहिम’ कहा जाता रहा है। लेकिन इस संबोधन को भी ग्यारह साल पहले हमारे देश से बाक़ायदा विदाई दे दी गई थी। प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रपति बनने के बाद अक्टूबर 2012 में संबोधनों की नई सूची को मंजूरी दी थी। तब से राष्ट्रपति को ‘महामहिम’ की जगह राष्ट्रपति महोदय और राष्ट्रपति जी कहा जाने लगा। ज़ाहिर है कि उपराष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए भी यही निर्देश लागू हो गए।
सो, धनखड़ की भावभंगिमाओं की नकल किसी महामहिम की अवमानना नहीं है। अब सवाल उठता है कि जो नकल उतारी गई, वह उपराष्ट्रति जी की देहभाषा की थी या राज्यसभा के सभापति की दैहिक-वैचारिक शैली की? सरकारी तंबुओं के ध्वनिविस्तारक यंत्र चार-पांच दिनों से हमें यह बताने में व्यस्त हैं कि ‘उपराष्ट्रपति जी की’ खिल्ली उड़ाई गई है। प्रधानमंत्री जी ने भावविह्वल हो कर उपराष्ट्रपति जी से फ़ोन पर बात की। राष्ट्रपति महोदया ने भावविह्वल हो कर उपराष्ट्रपति महोदय के मामले पर दु:ख ज़ाहिर करते हुए ट्वीट किया। गृहमंत्री समेत सभी बड़े-बड़े मंत्री भावविह्वल हो कर उपराष्ट्रपति जी से जा कर मिले। लेकिन भावविह्वलता के इस सागर की उफऩती लहरों से जूझता मैं अब भी यह सोच रहा हूं कि अच्छा-बुरा, सही-ग़लत, उचित-अनुचित, जो कुछ हुआ है, वह उपराष्ट्रपति के कर्तव्यों का पालन करने के नाते हुआ है या राज्यसभा के सभापति के कर्तव्यों का पालन-अपालन करने की वज़ह से?
राज्यसभा के सभापति संविधान के 64 वें अनुच्छेद के तहत सदन के अभिभावक की भूमिका निभाते हैं। वे सदन के प्रधान प्रवक्ता भी होते हैं। यह उन की ‘पदेन’ भूमिका है। सदन की कार्यवाही को संचालित करते वक़्त उन के अधिकारों, कर्तव्यों और सीमाओं का संविधान में विस्तार से जि़क्र है। मगर उपराष्ट्रपति का पद ‘पदेन’ नहीं है। इस पद की जि़म्मेदारियों, अधिकारों और कर्तव्यों का संविधान के अनुच्छेद 63 में तफ़सील से ब्यौरा दिया गया है। इन दोनों भूमिकाओं में फक़ऱ् है – स्पष्ट अंतर है। इसे इस तरह समझिए कि राष्ट्रपति के न होने पर कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका उपराष्ट्रपति निभाते हैं, राज्यसभा के सभापति नहीं। धनखड़ जी कुछ विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति उपराष्ट्रपति होने की वज़ह से हैं, राज्यसभा के सभापति होने के कारण नहीं।
तो कल्याण बनर्जी जब अपने परिवर्जनीय करतब को संसद की सीढिय़ों पर अंजाम दे रहे थे तो वे उपराष्ट्रपति की नहीं, राज्यसभा के सभापति की कार्यशैली के प्रति अपना क्षोभ व्यक्त कर रहे थे। अगर किसी भी राष्ट्रीय, प्रादेशिक या नगरीय सदन के मुखिया के रवैए पर किसी भी सदस्य को ऐतराज़ हो तो वह अपनी झल्लाहट का इज़हार क्यों नहीं कर सकता है? अगर पुतले जला कर, अर्थी निकाल कर और मुर्दाबाद-मुर्दाबाद करने के खुरदुरे माध्यमों से अपनी अकुलाहट प्रदर्शित की जा सकती है तो ठिठोली जैसे रंगीले साधन से पीडि़त अपने मन की भड़ास निकालें तो उस पर इतना बावेला करने की क्या ज़रूरत है? सो, भी ऐसी बेतुकी और शरारत भरी हाय-हाय कि अरे मेरी तो पूरी जाति का अपमान हो गया, मेरे तो पूरे समुदाय का अपमान हो गया!
मुझे तो लगता है कि कल्याण और राहुल को घनघोर गुनाहगार साबित करने की होड़ के चलते हास्यास्पद उपक्रमों में लगे हुक़्मरानों को जऱा बहुदर्शी होने की ज़रूरत है। उन की बदरंगी चादर पर उजले रंग ऐसे नहीं चढ़ेंगे। देश तो ये सवाल पूछ रहा है कि मणिपुर में अदालत की दख़ल से महीनों बाद हो पाए सामूहिक अंतिम संस्कार पर कोई क्यों इतना भावविह्वल नहीं हो रहा? उपनिवेशकाल के क़ानूनों को बदलने के बहाने उन्हें और निरंकुश बना देने के पीछे कौन-सी नीयत काम कर रही है? विपक्ष-विहीन संसदीय व्यवस्था बनाने के लिए हो रही तिकड़में हमें अधिनायकवादी-दौर की किस अंधेरी खाई में ले जाएंगी? राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भी क्या उन की जाति-बिरादरी से पहचाना जाना चाहिए?
जो यह भूल रहे हैं कि असली दुनिया उन की इंद्रसभा से बाहर है, वे ऐसा गच्चा खाएंगे कि चौकड़ी भूल जाएंगे। महज़ अपने आसपास के गोल घेरे में गरबा कर रहे चेहरों के भरोसे लंबे सफऱ तय नहीं हुआ करते। तुक्के में छींके बार-बार नहीं टूटा करते। सत्ता का बरामदा इन दिनों जिस तरह एकपक्षीय हो गया है और जिस तरह हर बात का बतंगड बनाने में लग गया है, वह किसी के गले नहीं उतर रहा है। नरेंद्र भाई के अगलियों-बग़लियों के भी नहीं। यह व्यग्रता जिस दिन अपनी रजाई झटकेगी, ‘मोशा’-होश ठिकाने आ जाएंगे। तब संभलने का समय नहीं बचा होगा। संसद परिसर में हुई ताज़ा चुहलबाज़ी के प्रसंग ने मौजूदा सियासत के कई भोंडे आयामों से हमारा त’आरूफ़ करा दिया है। सब को सन्मति दे भगवान!